Tuesday 23 August 2011

''पत्थर''

पत्थरों को भी मैने पिघलते देखा है 
उनमे से नदी की धार को बहते देखा है.
    राहो के पत्थर बड़े मनहूस होते है 
    उन्हें मैने ठोकर खाते देखा है.
चट्टानों के पानी से टकराने पर 
उन्हें भी चिकना बनते देखा.
   पत्थरों को तराश कर 
   सुन्दरता में ढलते देखा.
पत्थरों की आदत है कष्टों को सहना 
अब तक हमने किसी को भी आदत बदलते न देखा.
   दिलो में तो दरारें पड़ती है मगर
   मैने पत्थरों में भी दरारें पड़ते देख.
बहुत लगाव था जिन्हें पहाड़ो से 
उन्ही को चट्टानों पर फिसलकर लुढकते देखा.
   खंडहरों और कंदराओं में 
   चमगादरों  को शोर मचाते देखा है.
जुबान पर एक भी शब्द नहीं है कहने को
कि मैने किस किस तरह के पत्थरों को देखा है.    
 

Thursday 4 August 2011

''क्यों भूल जाते है''

मंजिल तक पंहुच कर
लोग क्यों भूल जाते है,
सीढियों को.
पेड़ क्यों बसंत में 
भूल जाता है,
जड़ को.
ओहदे मिल जाने पर 
लोग क्यों भूल जाते है,
अपनों को.
महल बनाकर 
लोग क्यों भूल जाते है,
नीवं को.
शहर में जाकर बसने वाले 
क्यों भूल जाते है,
गाँवों को.
हलवा पूरी खाने वाले 
क्यों भूल जाते है,
सुखी रोटी के महत्व को.
दरिया किनारे रहने वाले 
क्यों भूल जाते है,
सूखे को.
कभी कभी लोग
क्यों भूल जाते है,
अपनों को ही..