मंजिल तक पंहुच कर
लोग क्यों भूल जाते है,
सीढियों को.
पेड़ क्यों बसंत में
भूल जाता है,
जड़ को.
ओहदे मिल जाने पर
लोग क्यों भूल जाते है,
अपनों को.
महल बनाकर
लोग क्यों भूल जाते है,
नीवं को.
शहर में जाकर बसने वाले
क्यों भूल जाते है,
गाँवों को.
हलवा पूरी खाने वाले
क्यों भूल जाते है,
सुखी रोटी के महत्व को.
दरिया किनारे रहने वाले
क्यों भूल जाते है,
सूखे को.
कभी कभी लोग
क्यों भूल जाते है,
अपनों को ही..
लोग क्यों भूल जाते है,
सीढियों को.
पेड़ क्यों बसंत में
भूल जाता है,
जड़ को.
ओहदे मिल जाने पर
लोग क्यों भूल जाते है,
अपनों को.
महल बनाकर
लोग क्यों भूल जाते है,
नीवं को.
शहर में जाकर बसने वाले
क्यों भूल जाते है,
गाँवों को.
हलवा पूरी खाने वाले
क्यों भूल जाते है,
सुखी रोटी के महत्व को.
दरिया किनारे रहने वाले
क्यों भूल जाते है,
सूखे को.
कभी कभी लोग
क्यों भूल जाते है,
अपनों को ही..
शुभ-कामना मित्र...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता है..दिल को छूती हुई..
और आज के समय की सच्चाई भी...
हम ही गिरती हुई दीवार को थामे रहे, वरना
सलीके से बुजुर्गों की निशानी कौन रखता है.?
wah-WAH
ReplyDeletekya baat liki hai sir bilkul sachchai ke kareeb.bahut hi sahi yatharth prastuti aur han!mera housla badhane ke liye jo aapne mujhe apna samarthan diya uske liye bhi hardik badhai swikaren
dhanyvaad
poonam