Wednesday 7 September 2011

''इंसान''

इंसान
नाम का प्राणी 
कभी इस जग में रहता था,
किन्तु अब
डायनासोर की तरह 
लुफ्त हो गया है.
किन्तु कुछ
अवशेष मिले है 
इंसान के,
जिससे
ज्ञात होता है 
कि कभी इस धरा पर 
इंसान रहता था.
शायद हम तुम 
सब आदमी 
इंसान के 
अवशेष है,
क्यूंकि इंसानियत 
अब किसी में
न शेष है.
इन्सान और इंसानियत 
इस मतलबी दुनिया में 
केवल यादगार
अवशेष है. 

Tuesday 23 August 2011

''पत्थर''

पत्थरों को भी मैने पिघलते देखा है 
उनमे से नदी की धार को बहते देखा है.
    राहो के पत्थर बड़े मनहूस होते है 
    उन्हें मैने ठोकर खाते देखा है.
चट्टानों के पानी से टकराने पर 
उन्हें भी चिकना बनते देखा.
   पत्थरों को तराश कर 
   सुन्दरता में ढलते देखा.
पत्थरों की आदत है कष्टों को सहना 
अब तक हमने किसी को भी आदत बदलते न देखा.
   दिलो में तो दरारें पड़ती है मगर
   मैने पत्थरों में भी दरारें पड़ते देख.
बहुत लगाव था जिन्हें पहाड़ो से 
उन्ही को चट्टानों पर फिसलकर लुढकते देखा.
   खंडहरों और कंदराओं में 
   चमगादरों  को शोर मचाते देखा है.
जुबान पर एक भी शब्द नहीं है कहने को
कि मैने किस किस तरह के पत्थरों को देखा है.    
 

Thursday 4 August 2011

''क्यों भूल जाते है''

मंजिल तक पंहुच कर
लोग क्यों भूल जाते है,
सीढियों को.
पेड़ क्यों बसंत में 
भूल जाता है,
जड़ को.
ओहदे मिल जाने पर 
लोग क्यों भूल जाते है,
अपनों को.
महल बनाकर 
लोग क्यों भूल जाते है,
नीवं को.
शहर में जाकर बसने वाले 
क्यों भूल जाते है,
गाँवों को.
हलवा पूरी खाने वाले 
क्यों भूल जाते है,
सुखी रोटी के महत्व को.
दरिया किनारे रहने वाले 
क्यों भूल जाते है,
सूखे को.
कभी कभी लोग
क्यों भूल जाते है,
अपनों को ही..

Sunday 31 July 2011

''तलाश''

ना कोई ठौर
ना ही कोई ठिकाना.
कंहा है उसे जाना 
उसे मालूम नहीं,
फिर भी चला जा रहा है 
गली-चोराहों को पार करता हुआ,
किसी अपने की तलाश में..
लेकिन जिसका नहीं है कोई 
वो क्या पायेगा.
कंहा जायेगा.
लेकिन शायद उसके 
पथ का कोई विराम नहीं.
वह इस राह का
अकेला राही 
अनवरत चला जा रहा है....

Saturday 23 July 2011

''ऑनर किलिंग''

अपने मान सम्मान की खातिर
अपनी थोथी इज्जत की खातिर,
करते है अपनी ही
ओलाद का क़त्ल,
करते है उनके 
बुने हुए अधूरे सपनो का क़त्ल,
तोड़ देते है उनके 
अरमानों के आशियानों को..
आखिर क्यों....?
गुनाह.....
सिर्फ प्रेम,
वो ही प्रेम 
जो बचपन में 
हमने ही उन्हें  सिखाया,
जिस का उन्हें
मिलना चाहिए इनाम,
वो प्यार ही ले लेता है उनकी जान.
आखिर प्रेम-पंछी 
कब तक देते रहेंगे?
अपना बलिदान 
अपने सपनो का बलिदान..

''अजनबी राह''

शहर की अजनबी
राह पर चलते हुए 
मैने देखा की 
एक व्यक्ति
पड़ा है सड़क बीच, 
खून से लथपथ 
दर्द से कहरा रहा है वो
लोग घेर कर खड़े है उसे,
सब उसे देख रहे है 
कोतुहल भरी नजरों से
लेकिन,
कोई उसे हाथ नहीं लगाता 
क्यों कोई उसे अस्पताल नहीं पंहुचाता
क्या लोग ऐसे ही मरने
को छोड़ देते है किसी  को 
अपने ही भाई को 
अपने ही साथी को 
क्या शहर में कोई इंसान नहीं ?
या इंसानियत मर चुकी है ?
क्या सब ये भूल चुके है 
कि कभी उनकी भी 
यही हालत हो सकती है 
शहर कि अजनबी
राह पर चलते चलते.....

Friday 22 July 2011

''रूठे इन्द्र देव''

कभी कोई रूठता है ऐसे,
इन्द्र देव रूठे तुम जैसे,
न बदल बरसे, न घटा गरजी,
सावन में तरसे हम ऐसे....
सावन जा रहा है सूखा,
हो गया है ये मन रुखा,
सब्र का बाँध अब टूट गया..
हे ! भाग्यविधाता तू क्यों रूठ गया,
कितने यज्ञ किये, बलिया दी 
क्या पाया एक बूँद पानी भी नहीं ?
न आसाढ़ बरसा न सावन गरजा,
ऐसे ठगे हम की ये मन तरसे, 
खेत-खलियान में न पानी बरसे 

कंहा गया गाँधी

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मैंने सुना गाँधी मर गया,
अरे ! नहीं, वो सो गया..
कुछ भी हो दिखता नहीं,
फिर वो किधर गया..
गर गाँधी मर गया तो,
कल कौन दिखा था मुझे,
एक बुड्ढा हड्डियो का ढांचा,
चेहरे पर मोटा सा चश्मा,
हाथ में लाठी का हथियार,
गीता की थामे पतवार,
वो कौन था ?
क्या कोई आंतककारी
या सत्ताधारी था,
क्रिक्केटर, अभिनेता
या धार्मिक संत था..
नहीं, नहीं शायद वो गाँधी था,
किन्तु अचानक पलक झपकते ही,
वो किधर गया ?
शायद देखकर,
हाल हिंदुस्तान का,
वो शरमा गया,
अपने राम राज्य से भागकर वो कंहा गया....?

''गौरव''

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ये हमारे लिए गौरव है,
इन्हें दाग दार मत होने दो..
हमारे पूर्वजों की यह है अमानत,
इनपे ऐसे कालिख न पुतने दो..