कभी कोई रूठता है ऐसे,
इन्द्र देव रूठे तुम जैसे,
न बदल बरसे, न घटा गरजी,
सावन में तरसे हम ऐसे....
सावन जा रहा है सूखा,
हो गया है ये मन रुखा,
सब्र का बाँध अब टूट गया..
हे ! भाग्यविधाता तू क्यों रूठ गया,
कितने यज्ञ किये, बलिया दी
क्या पाया एक बूँद पानी भी नहीं ?
न आसाढ़ बरसा न सावन गरजा,
ऐसे ठगे हम की ये मन तरसे,
खेत-खलियान में न पानी बरसे
इन्द्र देव रूठे तुम जैसे,
न बदल बरसे, न घटा गरजी,
सावन में तरसे हम ऐसे....
सावन जा रहा है सूखा,
हो गया है ये मन रुखा,
सब्र का बाँध अब टूट गया..
हे ! भाग्यविधाता तू क्यों रूठ गया,
कितने यज्ञ किये, बलिया दी
क्या पाया एक बूँद पानी भी नहीं ?
न आसाढ़ बरसा न सावन गरजा,
ऐसे ठगे हम की ये मन तरसे,
खेत-खलियान में न पानी बरसे
Veri Nice Banka Ram Ji Bahut Badiya Likhte Ho Please Aap Ek Bar Milo Aapki Likhi Hue Kavitaye Kahi Pubication Karwate Hai
ReplyDeleteChoudhary Dev Pabada
9828440999
veri nice bankaram ji bahut achha likhate ho.
ReplyDeleteB R Saran
baitu, barmer